चित्तौड़ की महारानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी का असली इतिहास, जब 16000 वीरांगनाओं ने किया था जोहड़

भारत का इतिहास बहुत ही गौरव पूर्ण है वीर गाथा और कथा से भरा पड़ा है ,उनकी जीवंत कहानियों को सुनकर आज भी सैकड़ों साल बाद खुद पर गर्व महसूस होता है यह गर्व इस बात का है कि हमने भी इसी मिट्टी में जन्म लिया है। हमारी इस पावन देश में बहुत समय से या कह सकते हैं सैकड़ों सालों से बहुत सारे आक्रांताओं ने आक्रमण किया उन्होंने ना सिर्फ देश के धन को लूटा बल्कि यहां की संस्कृति और सम्मान को भी नष्ट कर दिया लेकिन ऐसा नहीं है कि उनके सामने सब ने अपना सर झुका लिया निश्चित ही बहुत कम सर उठे लेकिन जितने भी सर देश की रक्षा में उठे उन्होंने देश का मान बढ़ाया और आने वाली पीढ़ी के लिए एक सबक इतिहास और एक सीख छोड़ गए।
आज हम बात कर रहे हैं चित्तौड़ की, सातवीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक चित्तौड़ भारत के शक्ति का केंद्र रहा भले ही दिल्ली पर किसी भी आक्रांताओं का शासन रहा हो लेकिन उसकी नजर हमेशा चित्तौड़ पर ही रही क्योंकि चित्तौड़ ही एकमात्र ऐसा राज्य था जिसे जीतना किसी के लिए भी नामुमकिन था चित्तौड़ का इतिहास अपने आप में ही राजपूतों के लिए मान और सम्मान का विषय था चित्तौड़ का किला देश के लिए शान बन चुका था।


       
चित्तौड़ 13 वी शताब्दी महारानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी
               चित्तौड़ का इतिहास मान-सम्मान का ,वीर गाथाओं का , वीरो का ,उनकी कुर्बानी का, उनके समर्पण का देश के प्रति प्रेम का ,अपनी आन बान शान का और रक्त का है। यह कहानी है महारानी पद्मावती के सारे सम्मान और आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी के घमंड का है।
13 वी शताब्दी मे जब भारत विदेशी आक्रांताओं के आक्रमणों को झेल रहा था उस वक्त भी चित्तौड़ के किले की मजबूत दीवार और वहां के महाराणाओं की बुलंद इरादे उन आक्रांताओं के रास्ते का रुकावट बनते आ रहे थे जब 13 वी शताब्दी में अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली के तख्त पर अपना कब्जा जमाया तब उसकी नजर भारत के अन्य हिस्सों पर भी थी लेकिन सबसे अधिक उसकी नजर चित्तौड़ पर थी वह चित्तौड़ के मान सम्मान उसके ऐश्वर्य और महारानी पद्मावती पर मोहित था अपनी ताकत के नशे में चूर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ के मजबूत दीवारों की तरफ आक्रमण कर दिया। 8 महीनों तक वह महल के बाहर रहा। बहुत भीषण युद्ध हुआ लेकिन अलाउद्दीन खिलजी असफल रहा चित्तौड़ की मजबूत दीवार और वहां के महाराणा के मजबूत इरादे और उनके वीर सैनिक की जीत हुई। अपराजित होने के सदमे में वह दिल्ली वापस चला गया लेकिन अपनी हार का बदला वो लेना चाहता था और साथ ही चित्तौड़ की रानी पद्मावती को भी हासिल करना चाहता था।



उसने षड्यंत्र स्वरूप राजा रतन सिंह के पास संधि का प्रस्ताव रखा जिसके फलस्वरुप राजा ने  अलाउद्दीन खिलजी को चित्तौड़ महल आमंत्रित किया जहां उसने रानी पद्मावती की परछाई एक झील में देखी । संधि का नाटक कर उसने पुनः चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया क्योंकि इस बार उसे धन-संपत्ति नहीं रानी पद्मावती चाहिए थी। हालांकि इस बात को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है कि क्या सच में अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मावती की परछाई झील में देखी थी जिसके बाद वह मोहित हो गया या फिर यह केवल दंतकथा है।
बहुत भीषण युद्ध चला लेकिन किसी ने हार नहीं मानी। एक समय  ऐसा भी था, जब महल के अंदर का रसद और खाने-पीने का सामान खत्म हो गया। किसी की परवाह किए बिना युद्ध चलता रहा लंबे समय तक यह विनाशकारी युद्ध चला। अंततः एक समय ऐसा आया जब राजा रतन सिंह वीरगति को प्राप्त हुए अब रानी और 16000 अन्य वीरांगनाओं के पास अपने मान सम्मान को बचाने और हार कर भी जीतने का केवल एक ही मार्ग था।
यह युद्ध का सबसे कठोर कदम माना जाता है जब रानी पद्मावती और उनकी 16000 वीरांगनाओं ने पूरे चित्तौड़ महल और वहां की पावन भूमि को लाल रक्त रंजित कर दिया पूरा वातावरण लाल लाल हो गया, जब अग्निकुंड की लाल अग्नि और वीरांगनाओं की पुकार और उनके खून ने पूरे माहौल को ही बदल कर रख दिया इस महा विनाश और वीरांगनाओं के महा -त्याग ने चित्तौड़ के दीवारों पर अमिट छाप छोड़ दिया। जी हां महारानी पद्मावती और उनकी 16000 वीरांगनाओं ने एक साथ जौहर कर लिया।




1303 में हुए इतने बड़े विध्वंस के बाद फिर से चित्तौड़ आक्रांताओं के खिलाफ खड़ा हुआ लेकिन चित्तौड़ से टकराने समय-समय पर आक्रांताओं आते रहे ऐसी ही दो घटना और हुए। चित्तौड़ के इतिहास को रक्त रंजित कर दिया जब 1503 में बहादुर शाह जफर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब रानी कर्णावती ने 15000 अन्य वीरांगनाओं के साथ फिर से एक बार जोहर किया, यह बात यहीं खत्म नहीं होती।
अपने ताकत के नशे में चूर 1567 में अकबर एक बार फिर चित्तौड़ की तरफ बढ़ा और इस बार फिर से चित्तौड़ की भूमि ने चित्तौड़ की वीरांगनाओं से बलिदान मांगा। इस बार अकबर की इच्छा थी रानी फुल कंवर को पाना लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो सका। महाराणा प्रताप की पत्नी फूल कंवर ने 12000 वीरांगनाओं के साथ एक बार फिर इस पावन भूमि को रक्त रंजित किया अपने रक्त का बलिदान देकर अपने मान सम्मान और संस्कृति को बचाया। उन्होंने अपना बलिदान देकर अपनी रक्षा की और अपने दृढ़ निश्चय को प्रदर्शित किया।
भले ही आज चित्तौड़ की दीवारें और चित्तौड़ का किला वीरान हो गया है यह देखने में केवल एक खंडहर और सिर्फ महल लगता है लेकिन इसमें इतिहास के एक सबसे बड़े और महत्वपूर्ण पन्ने को अपने नाम किया है। इसकी कहानी राणा कुंभा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप तक आती है। जिसने देश के लिए  अपने परिवार और अपने सुखचैन का बलिदान किया। हमने यहां आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी का अधिक जिक्र नहीं किया क्योंकि उस विध्वंसक आक्रमणकारी का जिक्र महत्वपूर्ण लोगों के साथ करना हम उचित नहीं समझते।
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